- देवेन्द्र स्वरूप
13
मई को जयपुर में 8 जगह जिहादी हमला, 70 निर्दोषों ने जान गंवाई, सैकड़ों
घायल हुए, अरबों-खरबों का नुकसान हुआ। वीर भूमि राजस्थान की राजधानी
लहूलुहान हो गयी। 23 मई को एक जनांदोलन का विस्फोट, राजस्थान की जनसंख्या
के 5 प्रतिशत अर्थात् 25 लाख गुर्जर यकायक सड़क पर उतर आये। घुंघटधारी
औरतें कतार लगाकर रेल पटरियों पर बैठ गर्इं। बड़े-बड़े पग्गड़ बांधे, घनी
घहराती मूंछोवाले बुजुर्गों के नेतृत्व में नौजवानों ने राजमार्गों को बंद
कर दिया, रेल की पटरियां उखाड़ डालीं, रेलों का आवागमन बाधित कर दिया।
टेलीविजन चैनलों और अखबार के पन्नों पर छपी तस्वीरों को देखकर लगता है कि
एक पूरी जाति युद्ध के मैदान में उतर आयी। सबके हाथों में हथियार हैं,
लाठियां, बरछे, भाले यहां तक कि बंदूकें भी। वे युद्ध की पूरी रणनीति तैयार
करके मैदान में उतर आए हैं। जवानों में युद्ध का जोश भरने के लिए शहादत की
स्थिति पैदा करना जरुरी है, शहादत के लिये पुलिस को गोली वर्षा करने के
लिए उत्तेजित करना अपरिहार्य है। इसलिये पटरी उखाड़ो, वाहनों को आग लगाओ,
पुलिस पर पथराव करो, जब पुलिस गोली वर्षा करने के लिये मजबूर हो जाए तब
उसकी गोली से मारे गये आंदोलनकारियों को शहीद घोषित करो, उनके शवों का
अंतिम संस्कार मत होने दो। उन्हें बर्फ की सिल्लियों के साथ कई दिन तक बनाए
रखो ताकि भीड़ में गुस्सा पैदा हो, उसका जोश उबाल खाता रहे। बयाना में 10,
सिकंदरा में 7, करवारी में 5 शव बक्सों में बंद कतार बना कर रखे हुए हैं।
प्रत्येक बक्से पर शव का नाम और शहीद लिखा हुआ है। ये शव सरकार की
ह्मदयहीनता और गुर्जर जाति के प्रति शत्रु भाव के प्रमाण हैं, जो पूरी जाति
को युद्ध की स्थिति में लाने की उत्तेजना पैदा कर रहे हैं।
गुर्जर
जाति का इतिहास राष्ट्रीय संस्कृति और स्वतंत्रता के लिये वीरतापूर्वक
संघर्ष और बलिदान का इतिहास रहा है। मुगल-तुर्क आक्रमणों के विरुद्ध
उन्होंने शौर्य गाथाओं के अनेक पन्ने लिखे, 1857 की महाक्रांति में भी
उन्होंने अंग्रेजों को नाकों चने चबवाये। क्या इस बार भी 13 मई के जिहादी
हमले के जवाब में उनका पुरुषार्थ जागा है? क्या जिस हिन्दू समाज के ऊपर वह
हमला हुआ, उसके वे अंग नहीं हैं? पर, उनका ये आंदोलन जिहादियों के विरुद्ध
नहीं, अपनी ही सरकार के विरुद्ध है। सरकार ही क्यों, उनका हिंसक आंदोलन तो
पूरे राष्ट्र के विरुद्ध दिखाई देता है। आखिर, रेलमार्ग और सड़क यातायात
बाधित कर वे किसे दंड दे रहे हैं। क्या केवल सरकार को या उन लाखों-करोड़ों
देशवासियों को जो किसी न किसी जरूरी काम से राजस्थान होकर दक्षिण से उत्तर
और उत्तर से दक्षिण की ओर यात्रा कर रहे हैं। उन्होंने गुर्जर जाति का कभी
कुछ नहीं बिगाड़ा है तब उन्हें किस बात का दंड? क्या इसलिये कि वे मात्र
राष्ट्र के अंग हैं उसी प्रकार जिस प्रकार गुर्जर जाति इस राष्ट्र का अंग
है।
आरक्षण का भूत
आखिर,
गुर्जर जाति का गुस्सा अपने ही देशवासियों के विरुद्ध क्यों जगाया जा रहा
है? क्यों आंदोलन की आग देश की राजधानी दिल्ली में लगायी जा रही है? क्यों
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के चारों ओर नाकेबंदी करके राजधानी वासियों को
सब्जी, दूध आदि आवश्यकताओं के लिये तरसाने की सगर्व घोषणाएं की जा रही हैं?
हाथों में हथियार लिये नौजवानों के झुंड सब प्रमुख मार्गों की नाकाबंदी
करते दिखाई दे रहे हैं? कहा जा रहा है कि यह गुर्जर महापंचायत का आदेश है।
गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति के चेयरमैन सेवानिवृत्त कर्नल करोड़ी सिंह
बैंसला का आह्वान है। इसलिये आह्वान के लिये मर मिटना प्रत्येक गुर्जर का
धर्म है। हमारी निष्ठा राष्ट्र के लिये नहीं, देशवासियों के लिये नहीं,
अपनी महापंचायत और उस महापंचायत द्वारा नियुक्त नेता या डिक्टेटर के प्रति
है। डिक्टेटर ने हमें कह दिया है कि जब तक राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा
राजे हमारे हाथ में दो लाइन की यह चिट्ठी नहीं थमा देती कि आज से गुर्जर
जाति को अनुसूचित जनजाति की सूची में सम्मिलित कर लिया गया है तब तक हमारा
संघर्ष चलता रहेगा। पिछले साल हमने 26 शहीद बनाये थे, इस बार अब तक 37 शहीद
बन चुके हैं, जरूरत पड़ी तो अगली किश्त इससे भी बड़ी होगी।
तो
यह लम्बा संघर्ष गुर्जर जाति को जनजाति का दर्जा दिलाने के लिये लड़ा जा
रहा है। लगभग सौ साल पहले इसी गुर्जर समाज के नेताओं ने ब्रिटिश सरकार को
ज्ञापन दिये थे कि उनका स्थान अपराधी जनजाति सूची में नहीं, श्रेष्ठ
क्षत्रिय वर्ग में होना चाहिए। स्वाधीन भारत ने 1950 में ब्रिटिश सरकार के
अपराधी जनजाति अधिनियम-1871 को समाप्त करके उन्हें उस लांछित श्रेणी से
मुक्ति दिलायी। पर, तब तक आरक्षण का एक नया भूत पैदा हो चुका था। इस भूत को
जन्म देने का श्रेय भी ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को जाता है। 1871 में दस
वर्षीय जनगणना की प्रक्रिया को प्रारंभ करके उन्होंने भारत के राष्ट्रीय
समाज की सीमाओं को संकुचित करना आरंभ किया। जनजातियों की गणना हिन्दू समाज
से बाहर की। शेष हिन्दू समाज को भी सवर्ण, मध्यम एवं निम्न वर्गों में
विभाजित किया। निम्न वर्ग को दलित वर्ग (डिप्रेस्ड क्लासेज) जैसा नाम दिया।
उन्हें शेष समाज से अलग करके मुसलमानों और सिक्खों की तरह अलग मताधिकार
देने का कुचक्र रचा जिसे विफल करने के लिये 1932 में पूना पैक्ट हुआ। इस
पैक्ट के द्वारा दलित वर्गों को पृथक मताधिकार तो नहीं मिला पर आरक्षण का
अधिकार मिल गया। 1935 के भारत सरकार एक्ट में आरक्षण का विधान प्रतिष्ठित
हो गया। पर जनजातियों को ब्रिटिश शासकों ने 1935 के एक्ट के अन्तर्गत
निर्वाचित सरकारों के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखकर प्रांतीय गवर्नरों के
अधीन रखा। इस प्रकार आरक्षण के आधार पर दलित वर्गों की प्रांत स्तर पर
अनुसूचियां बनीं और उन्हें अनुसूचित जातियां कहा जाने लगा। गांधी जी ने
उनके लिए "हरिजन" शब्द चलाया और कुछ समय तक वह चला भी खूब। पर, 1932 में
पूना पैक्ट भारतीय समाज को जाति के आधार पर विभाजित करने की अंग्रेजों की
कूटनीति की विजय थी। क्योंकि आरक्षण सिद्धांत के कारण पृथक निर्वाचन का
खतरा तो टल गया पर जाति चेतना ज्यों की त्यों बनी रह गयी बल्कि और गहरी
होती चली गयी अर्थात् जाति विहीन समाज के निर्माण का सपना मात्र सपना रह
गया। इसका एक परिणाम यह हुआ कि आरक्षण सिद्धांत के जन्म के पूर्व प्रत्येक
जाति उच्च वर्गों में स्थान पाने के लिये आंदोलन कर रही थी वहीं बाद में
आरक्षण की सुविधा पाने के लिये ऊंची जातियां भी अनुसूचित जाति या जनजाति की
श्रेणी में स्थान पाने के लिये लालायित हो गयीं। आरक्षण की रेवड़ियां
लूटने के लालच ने जातियों को एक दूसरे का प्रतिस्पर्धी भी बना दिया।
स्पर्धा एवं कटुता
राजस्थान
में यही हुआ। वहां की मीणा एवं गुर्जर जातियां सैकड़ों साल से इकट्ठा रहती
आ रही थीं। अंग्रेजों ने दोनों जातियों को अपराधी जनजाति श्रेणी में डाल
दिया जबकि मीणा जाति कृषि के साथ-साथ चौकीदारी का काम करती थी। अत: 1955 के
काका कालेलकर पिछड़े वर्ग आयोग ने उन्हें भूस्वामी होने के कारण पिछड़े
वर्ग में ही रखने योग्य माना किंतु मीणा जाति के कुछ चतुर नेताओं ने बड़ी
कुशलता से 1954 में अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग के गठन के बाद जब अनुसूचित
जनजातियों की सूचियां तैयार की जा रही थीं, राजस्थान में बसी "भील मीणा"
जनजाति के नाम में हेराफेरी करके अपनी पूरी मीणा जाति को अनुसूचित जनजाति
में सम्मिलित करा लिया। उन्होंने चतुराई यह की कि "भील मीणा" नाम में भील
और मीणा शब्दों के बीच एक अर्ध विराम जोड़ दिया जिससे "भील मीणा" एक जनजाति
का नाम न रहकर दो पृथक जातियों भील और मीणा का सूचक बन गया। इस कारण भीलों
के साथ-साथ उत्तरी राजस्थान के किसान चौकीदार मीणा भी अनुसूचित जनजातियों
की सूची में आ गये। आरक्षण की बैसाखी पर सवार होकर उन्होंने राजस्थान और
केन्द्रीय प्रशासनिक सेवा और शिक्षा क्षेत्र में पर्याप्त स्थान प्राप्त कर
लिये। यही मीणा और गुर्जर जातियों के बीच स्पर्धा व कटुता का कारण बन गया।
आरक्षण की सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए गुर्जर नेताओं ने 1960 से ही
अनुसूचित जनजाति का दर्जा पाने की मांग उठाना शुरु कर दिया। 1962 में सीकर
कमेटी की रिपोर्ट ने गुर्जरों को जनजाति श्रेणी में रखने का कोई औचित्य
नहीं देखा। न वे वनवासी हैं और न जनजाति। पर, उसी समय गुर्जरों से अधिक
समृद्ध और विकसित मीणाओं को अनुसूचित जनजाति से बाहर निकालने का सुझाव किसी
ने नहीं दिया। गुर्जरों को आरक्षण की सुविधा देने के लिये उन्हें 1993 में
अन्य पिछड़े वर्गों में सम्मिलित कर लिया गया। पर, 1999 में वोट राजनीति
के दबाव में जाटों को ओबीसी दर्जा दे दिया गया। जाटों के आ जाने से
गुर्जरों की आरक्षण सुविधाओं का बड़ा हिस्सा जाटों के पास चला गया। पर
अनुसूचित जनजाति की सुविधाओं पर मीणाओं का एकाधिकार और वर्चस्व बना रहा, आज
भी बना हुआ है। मीणा युवक बड़ी संख्या में आई.ए.एस और आई.पी.एस बन चुके
हैं, बन रहे हैं जिससे गुर्जरों में अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में आने की
छटपटाहट बढ़ गई। उन्होंने भी वोट बैंकों के हथियार का इस्तेमाल किया। जिसके
कारण पिछले विधानसभा चुनाव के पूर्व मुख्यमंत्री पद की दावेदार ने उनकी
मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का आश्वासन दे दिया।
आश्चर्य
यह है कि गुर्जर नेताओं ने इस आश्वासन को भाजपा सरकार का वचन मान लिया।
उन्होंने एक बार भी नहीं सोचा कि किसी जाति को आरक्षित श्रेणी में सम्मिलित
करने का अधिकार राज्य सरकार के पास नहीं होता, वह केवल अनुशंसा केन्द्र को
भेज सकती है। केन्द्र उस पर अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग की सहमति प्राप्त
करता है, उस सलाह के आधार पर मंत्रिमंडल की स्वीकृति प्राप्त करके उसे संसद
में प्रस्तुत करता है। वैसे भी गुर्जर जाति की कुल जनसंख्या 1 करोड़ 60
लाख है। उसमें से केवल 25 लाख ही राजस्थान में हैं शेष हरियाणा,
मध्यप्रदेश, गुजरात, राजधानी क्षेत्र, उत्तर प्रदेश, जम्मू कश्मीर व हिमाचल
प्रदेश में बसे हैं। उन्हें अनुसूचित जनजाति में सम्मिलित करने का निर्णय
इन सब राज्यों को भी स्वीकार करना होगा जो कार्य केन्द्र ही सब राज्यों के
मुख्यमंत्रियों को बुलाकर कर सकता है। फिर भी गत वर्ष के गुर्जर आंदोलन के
पश्चात् राजस्थान सरकार ने उनकी मांग पर विचार करने के लिये चोपड़ा कमेटी
बनायी जिसने काफी अध्ययन के पश्चात् दिसम्बर 2007 में अपनी रिपोर्ट दी।
उसने काफी ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं सम्बंध प्रमाणों के आधार पर निष्कर्ष
निकाला कि गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
हां, उन्हें घुमंतू जाति की श्रेणी देकर 4 से 6 प्रतिशत का अतिरिक्त आरक्षण
दिया जा सकता है।
वोट राजनीति
राजस्थान
सरकार ने यह रिपोर्ट और उनकी अनुशंसा केन्द्र सरकार को जनवरी, 2007 में
भेज दी। किन्तु केन्द्र सरकार ने उस पर कोई कार्रवाई करना उचित नहीं समझा।
वे भी गुर्जरों का इस्तेमाल आने वाले चुनावों में अपनी वोट राजनीति के लिये
करना चाहते हैं इसीलिये गुर्जरों के हिंसक आंदोलन को लोकतंत्र के लिये
खतरा बताने की बजाए वे उसे हवा दे रहे हैं। हरियाणा के मुख्यमंत्री
भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने बड़ी बेशर्मी से कहा कि यदि वसुंधरा राजे ने कोई
वचन दिया था तो वे उसे पूरा क्यों नहीं करती? सोनिया पार्टी के सब
पदाधिकारी इस विषय को दलीय राजनीति से बाहर रखने के बजाय गुर्जर आंदोलन के
लिये राजस्थान की भाजपा सरकार को दोषी ठहरा रहे हैं। सोनिया पार्टी के
गुर्जर नेता राजस्थान में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग कर रहे हैं और
राजस्थान की सरकार को नैतिक आधार पर त्यागपत्र देने के लिये ललकार रहे हैं।
वे भूल जाते हैं कि उनके शासनकाल में ही मीणा लोग धोखे से अनुसूचित जनजाति
की सूची में स्थान पा गए और लम्बे समय तक उनकी कई सरकारों ने गुर्जरों की
मांग को अनसुना किया। अभी भी वे यदि सत्ता में आ जाएं तो इस मांग को
स्वीकार नहीं कर पाएंगे। क्योंकि अब यह प्रश्न मीणा-गुर्जर प्रतिस्पर्धा
में उलझ गया है। गुर्जरों के उस सूची में आ जाने से मीणाओं का एकाधिकार
समाप्त हो जाएगा और वे आरक्षण की पूरी मलाई नहीं खा पाएंगे। इसीलिये पिछले
वर्ष गुर्जरों के आंदोलन के विरोध में मीणा जाति भी मैदान में उतर पड़ी।
राजस्थान में राजनीतिक दलों के सामने स्थिति यह है कि गुर्जरों की मांग
पूरी करने पर मीणाओं का समर्थन खोने का खतरा खड़ा हो जाता है। मीणाओं की
जनसंख्या अधिक होने के कारण राजस्थान की वोट राजनीति से उनका वजन अधिक है।
ओबीसी की सूची में जाटों के सम्मिलित होने से गुर्जर लोग अपने को छला हुआ
समझने लगे हैं।
वास्तव में आरक्षण नीति
जाति संस्था को मिटाने की बजाए उसे स्थायी करने का कारण बन गयी है। वह
जातियों को जोड़ने के बजाए उनमें स्पर्धा और कटुता पैदा करती है। वह वोट
राजनीति का हथियार बन गयी है। सभी दल चुनाव जीतने के लोभ में आरक्षण का
झुनझुना जातियों के सामने फेंकते हैं। आरक्षण नीति ने जातियों में
स्वावलंबन और स्वाभिमान का भाव जगाने के बजाए उन्हें आरक्षण की भीख पाने के
लिये जातियों की पंक्ति में खुद को निम्न से निम्नतर बताने का निर्लज्ज
भाव पैदा किया है। गुर्जर समाज को ही लें। यदि वह समाज आरक्षण की सुविधा के
बिना भी राजेश पायलट, सचिन पायलट और कर्नल करोड़ी सिंह बैंसला जैसे लोग
पैदा कर सकता है तो गुर्जर महापंचायत गुर्जरों को अपने संगठित बल के सहारे
शिक्षा, नौकरियों व अन्य क्षेत्रों में कीर्तिमान स्थापित करने की प्रेरणा
क्यों नहीं दे सकती? क्यों गुर्जर समाज को शिक्षित व योग्य नहीं बना सकती?
क्या अनुसूचित जनजाति की सूची में सम्मिलित होने से उनका गौरव बढ़ता है?
क्या मुट्ठी भर सरकारी नौकरियों के लिये सशस्त्र हिंसा का रास्ता अपनाकर वे
भारतीय लोकतंत्र को मजबूत कर रहे हैं?
किंतु
सच यह है कि आरक्षण के इस भूत को दल और वोट की वर्तमान राजनीतिक प्रणाली
बोतल में बंद नहीं कर सकती। उसका जातिवादी राजनीति में निहित स्वार्थ पैदा
हो गया है। आरक्षण नीति के कारण देश की युवा पीढ़ी में अपनी प्रतिभा और
योग्यता पर से विश्वास खत्म होता जा रहा है। वह आत्महत्या के रास्ते पर बढ़
रही है या विदेश पलायन कर रही है। प्रतिभा और योग्यता की पुनप्र्रतिष्ठा
के लिये आरक्षण नीति के भूत को दफनाने का निर्णय लेना ही होगा पर यह निर्णय
वर्तमान राजनीतिक प्रणाली के दायरे में नहीं लिया जा सकता। उसके लिये उससे
बाहर निकलना होगा पर कैसे? यही बड़ा यक्ष प्रश्न है।
द (30 मई, 2008) http://panchjanya.com/arch/2008/6/8/File9.htm से साभार
NEWS
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