मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

राजपूतों का उदय

राणा अली हसन चौहान पाकिस्तान के बहुत ही प्रतिष्ठित इंजीनियर, इतिहास लेखक और भाषाविद रहे हैं। वे उन कम पाकिस्तानियों में से हैं जो उर्दू, फारसी, अरबी के अलावा सिंधी, पंजाबी तथा हिंदी व संस्कृत में भी पारंगत थे। वे नागरी लिपि के एक बड़े प्रवर्तकों में से रहे हैं और मानते रहे हैं अकेले यही एक लिपि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को जोड़े रख सकती है। वे मानते थे कि इस सारे इलाके को एक हो जाना चाहिए। उनकी एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पढ़ी और समझी जाने वाली पुस्तक है- ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ द गुर्जर्स। भारतीय उपमहाद्वीप में इसे पढ़ाए जाने तथा पाठ्यक्रम में स्वीकृत किए जाने की अत्यंत आवश्यकता है। यह पुस्तक भारतीय वर्णव्यवस्था और तुर्कों तथा अंग्रेजों की चालों का पर्दाफाश करने के लिए काफी है। यह पुस्तक बताती है कि कैसे कुछ चतुर और कायर जातियों ने पहले मुस्लिम हमलावरों और बाद में अंग्रेजों को यह समझा दिया कि भारत मेें गूजर आदिवासी टाइप की जाति हैं और यहां के असली क्षत्रप तो हम रहे हैं। इस पुस्तक में भारत मेें स्वयं को वीर बहादुर कहने वाली एक जाति राजपूत की चतुराई को बड़े ही तार्किक तरीके से बताया गया है। पुस्तक के मुताबिक राजपूत जाति ने यहां के गूजरों, यादवों और प्रतिहारों को धोखा देकर सत्ता छीनी और फिर खुद शासक बन बैठे। वर्ना सातवीं से बारहवीं सदी तक भारत के पूरे मैदानी इलाके में गुर्जर प्रतिहारों का राज  था। अली हसन चौहान बताते हैं कि कर्नल जेम्स टाड ने राजपूतों के पैसे से एक किताब लिखी- हिस्ट्री आफ राजपूताना, इस किताब में उसने एक ऐसी कहानी लिख दी जिससे लगता है कि गुर्जर विदेशी हैं। अली हसन चौहान का कहना है कि एक जमाने में पूरा हिंदुस्तान, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान और गंगा यमुना का पूरा दोआबा गुर्जर प्रतिहार राजाओं के पास था और विदेशी मुसलिमों से इन गुर्जर नरेशों ने ही टक्कर ली थी।
राजपूतों के इतिहास के बारे में लिखते हुए राणा अलीहसन ने लिखा है कि ये वे लोग थे जो विदेशी तुर्क आक्रांताओं से मिल गए और गुर्जर राजाओं के विरुद्ध षडयंत्र कर सत्ता पर कब्जा कर लिया। जबकि पूर्व काल के क्षत्रिय गुर्जर जरायम पेशा जाति के दर्जे में डाल दिए गए। राणा अली हसन के मुताबिक अयोध्या नरेश दशरथ, श्री कृष्ण की मां यशोदा, पन्ना धाय, विजय ङ्क्षसह पथिक, सरदार बल्लभ भाई पटेल, भारत के राष्टपति स्वर्गीय फखरुद्दीन अली अहमद, पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति श्री फजल इलाही और भारत में केंद्रीय मंत्री रह चुके स्वर्गीय राजेश पायलट इसी गुर्जर जाति से थे।
आर्यों केे विदेशी होने के सिद्धांत का खंडन करते हुए राणा अली हसन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, ऊपरी पंजाब, ऊपरी उत्तर प्रदेश तथा हिमालय पर्वत की एक-एक इंच जमीन आर्यों के लिए पवित्र थी। आज भी यह सारा इलाका देवी-देवताओं के तीर्थ स्थानों से भरा पड़ा है। वैदिक युग में पूर्वी उत्तर प्रदेश के वर्तमान में सीतापुर जिले में नैमिषारण्य आर्यों का पवित्र तीर्थ स्थान था। ऋग्वेद में जिस तरह की भूमि का जिक्र हमें मिलता है वह यही उपमहाद्वीप था, जो अब भारत, पाकिस्तान और बंाग्ला देश कहा जाता है।
अपने मत की पुष्टि के लिए वे एक और उदाहरण पेश करते हैं। वे बताते हैं वेद में सुदास और नौ राजाओं के बीच युद्ध का वर्णन है। ये राजा असुर कहलाते थे। राणा अलीहसन के अनुसार ये सभी राजा जो असुर कहलाए दरअसल आर्यों की ही शाखा से थे। कहा जाता है कि आर्यों ने स्थानीय लोगों को अपने अधीन कर लिया। उनके क्षेत्र की विशालता तथा अधिक आबादी की व्यवस्था को सुचारू रूप से करने के लिए उन्होंने अपने को चार वर्णों में बांट दिया- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। अधीनस्थ लोगों को शूद्र बनाया तथा स्थानीय विरोधियों को बुरे-बुरे नाम दिए। जैसे- असुर, अनार्य, राक्षस, दस्यु, दैत्य, निषाद तथा दानव। राणा अली हसन इसे गलत बताते हुए अपनी पुस्तक में कहते हैं- धार्मिक पुस्तकों की जानकारी रखने वाले सभी लोग जानते हैं कि अहले ईमान और काफिर, मोमिन व मुनाफिक मुस्लिम और मूर्ति पूजक, फासिख और फाजिर सब एक ही वंश के थे। इसी प्रकार देव, सुर, आर्य और असुर, अनार्य, राक्षस, दास, दस्यु, दैत्य, निषाद व दानव के बीच भी कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। इन दोनों समूहों की भाषा, नाम तथा परिवार एक ही थे। यह व्यक्ति की नैतिक गुणवत्ता को व्यक्त करने के लिए शब्द प्रयोग होते थे। जैसे ऋग्वेद के दस राजा एक ही जाति के सदस्य थे। उनके नाम संस्कृत में थे। इसके कई उदाहरण हैं। सुदास एक आर्य का नाम था। शतबाहु व कीर्ति असुरों के नाम थे। सुधर्मा किन्नरों का राजा था। एक निषाद का नाम गुह था। कुक्षि एक दानव था। कुक्षि ईक्ष्वाकु देव का नाम भी था। वृत्रासुर इन्द्र के द्वारा मारा गया था। पुष्कल एक असुर था। कश्यप ऋषि के पुत्र वरुण के बेटे का नाम भी पुष्कल था। पुरोचन एक दैत्य का नाम था तथा इन्द्र के ससुर का नाम भी यही था। पुलोमा भृगु ऋषि की पत्नी का नाम था। च्यवन ऋषि की मां का नाम भी यही था। शटाटिक एक असुर का नाम था। ऋषि व्यास के शिष्य तथा नकुल देव के पुत्र का नाम महीश था।
एक महीश असुर भी था जो दुर्गा देवी ने मारा था। सुमन का अर्थ है फूल। ब्राह्मणों अथवा देवों में आज तक यह नाम सामान्यतया रखा ही जाता है। जबकि सुमन एक दानव भी था। सुबाह दुर्योधन के बड़े भाई का नाम था तथा एक दानव का भी यही नाम था। हिरण्यकश्यपु एक राक्षस था, उसी समय उसका पुत्र प्रहलाद देव कहलाता था। इसके पश्चात् प्रहलाद का पोता बलि दैत्य था। हिरण्यकश्यपु विष्णु के अवतार नरसिंह द्वारा मारा गया। मधु शिव या महादेव है। मधु एक दैत्य भी था जो विष्णु द्वारा मारा गया था। शुक्राचार्य नाम का एक आचार्य था उसकी शिक्षाएं अपवित्र घोषित हो गई थीं। उसके शिष्य असुर कहलाते थे और उसे असुर गुरू कहते थे। वह महान ऋषि भृगु का पुत्र था। उसकी पुत्री प्रसिद्ध राजा ययाति से ब्याही गई थी। उसीका पुत्र यदु था जिसकी संतानें आज तक हैं और यादव कहलाती हैं। इसी वंश में श्रीकृष्ण पैदा हुए। एक त्रास दस्यु था जो ऋषि सोमार का ससुर था।
रामायण काल में श्री रामचंद्र, लक्ष्मण प्रतिहार, भरत व शत्रुघ्न रघु के वंशज दशरथ के पुत्र थे यह सब आर्य थे। जनक श्री रामचंद्र की पत्नी सीता के पिता थे। जनक सांवर असुर के पुत्र थे। अब रावण राक्षस की वंशावली पर ध्यान दीजिए जो श्री रामचंद्र का शत्रु था। रावण का पिता विश्रवा एक ऋषि था उसकी पत्नी कैकसी सुमाली नामी एक राक्षस की पुत्री थी। उसकी दूसरी पत्नियां निक्षा व राका थीं। विश्रवा की चार संतानें थीं। रावण अर्थात रावत या राजा। उसका पुत्र मेघनाद था जो इन्द्रजीत भी कहलाता था। वह युद्ध में लक्ष्मण द्वारा मारा गया। लक्ष्मण इस विजय के पश्चात प्रतिहार कहलाया। २ कुंभकर्ण उसका पुत्र निकुम्भ सुग्रीव के सेनापति व रामचंद्र जी के सहयोगी हनुमान द्वारा मारा गया। ३ विभीषण, उसकी पत्नी शर्मा थी। ४ शूर्पणखा नाम की एक पुत्री थी। ध्यान रहे कि शूर्पणखा पुलस्त्य ऋषि की पुत्री का नाम भी था। विश्रवा परिवार के सारे सदस्य, विभीषण को छोड़कर श्री रामचंद्र जी के विरुद्ध लड़े इसीलिए राक्षस कहलाए। परन्तु विभीषण राक्षस नहीं था। एक और राजघराने में बालि और सुग्रीव दो भाई थे। बालि ने श्रीरामचंद्र का विरोध किया इसलिए वह राक्षस कहलाया।
महाभारत काल में श्रीकृष्ण के मामा कंस राक्षस कहलाते थे क्योंकि उन्होंने अपने पिता उग्रसेन को जेल में डाल दिया था। शिशुपाल चेदि का शुद्ध क्षत्रिय राजा था। उसकी माता सुभद्रा थी जो सात्वत भी कहलाती थी। उसने श्रीकृष्ण का विरोध किया इसलिए राक्षस कहलाया और श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया। भीम ने जटासुर को मारा था। पहली सदी ईसापूर्व में वाराहमिहिर ने जटासुर नाम की एक जाति लिखी है। जाट अब एक जाति है। ये शुद्ध आर्य हैं।
महाभारत नाम से प्रसिद्ध एक बहुत बड़ी लड़ाई दो परिवारों के बीच लड़ी गई थी। पांडवों और कौरवों के बीच। श्रीकृष्ण ने स्वयं पंाडवों का साथ दिया। उपमहाद्वीप के सभी राजाओं ने किसी न किसी ओर से इस युद्ध में भाग लिया। जो कौरवों की ओर से लड़े थे, उन्हें पुस्तक में जाति बहिष्कृत लिख दिया गया। जैसे शाकर, चिब, हूण व शिना आदि। यह ध्यान देने की बात है कि इन क्षत्रियों को व्यवहार में कभी भी बहिष्कृत नहीं माना गया। पहलवा आधुनिक पहलवी, कंबोज और पख्तू या पख्तून शुद्ध क्षत्रिय माने जाते रहे। दुर्योधन की बहन सिंध के राजा जयद्रथ से ब्याही थी जो कौरवों के पक्ष से लड़ा था।
कम्बोज, पहलव व पुख्तू सिन्ध व गंधार से परे पश्चिमी क्षेत्रों के राजा थे। पश्चिम में पहलव व कंबोज तथा पूर्व में प्राग्ज्योतिषपुर, आधुनिक आसाम व गौड़ देश, आधुनिक बंगाल तक आर्यों का घर था जिसको उन्होंने आर्यावर्त नाम दिया था स्पष्ट है कि आर्य व असुर आदि एक ही जाति से संबंध रखते हैं।
मानव की उत्पत्ति के संबंध में बहुत बड़ा स्रोत संस्कृत साहित्य है। इससे पता चलता है कि आर्यों के पूर्वज देव थे जो वेदों से भी पूर्व अज्ञात समय से इस उपमहाद्वीप में रह रहे थे। वेेदों में भी उपमहाद्वीप के अतीत काल का वर्णन है। उदाहरण के लिए सुदास देवदास का पुत्र था जिसका पिता पिजावन वघ्रयाश्व का पुत्र था। वे त्रत्सु वंश के सदस्य थे। दूसरे कुल-जह्नू, इक्ष्वाकु, वित्ताश्रय, भृगु आदि थे। इनके पूर्वजों के नाम भी वेदों में लिखे हैं। ये सब वेदों से पूर्व भी इस उपमहाद्वीप में रहते थे।
- वेद में आर्यों के विभाजन या किसी जाति-पाति की बात कहीं नहीं मिलती। वेदों में सभी जगह राजा को राजन् तथा पुरोहित को ऋषि कहा गया है। कहीं-कहीं अध्यापक के लिए ब्राह्मण तथा सैनिक के लिए क्षत्रिय शब्द प्रयुक्त हुआ है। परन्तु ये सब किसी जाति को प्रदर्शित नहीं करते। वेद के एक मंत्र का अर्थ है- ब्राह्मण ब्रह्मा का मुख है, क्षत्रिय भुजाएं हैं, वैश्य पेट है तथा शूद्र पैर हैं।। विद्वान संस्कृत शोधकर्ता मिस्टर एफई पार्जिटर अपनी पुस्तक एन्सिएन्ट इंडियन हिस्टोरिकल ट्रेडींस मं लिखते हैं कि ये मंत्र प्रक्षिप्त हैं। आर्यों में विभाजन तथा जातियां बाद में आईं। इन जातियोंं ने स्थायी संस्था बनने में कई सदियां लगाईं तथा उनकी निश्चित जीवन शैली बनने में और भी अधिक वक्त लगा। यदि हम आधुनिक जातियों के गोत्र तथा परिवारों पर दृष्टि डालें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि शूद्र शेष तीनों वर्णों की ही शाखा है तथा आर्य जाति से हरगिज अलग नहीं है।
- आर्य संस्कृति तथा सभ्यता का आर्यावर्त से बाहर सब दिशाओं में प्रसार हुआ। यही कारण है कि संस्कृत शब्द पड़ोसी देशों की भाषा में बहुत अधिक तथा दूर देशों की भाषाओं में भी मिलते हैं। ईरान की पुरानी फारसी भाषा में ५० प्रतिशत से अधिक शब्द प्राकृत संस्कृत के हैं।
- इन शब्दों को देखने से पता चलता है कि फारसी भारत-पाक उपमहाद्वीप की क्षेत्रीय भाषाओं की तरह संस्कृत की ही एक शाखा र्है। संस्कृत शब्द ईरान के माध्यम से तुर्की तथा यूरोप में गए। इस प्रकार श्रीलंका, तिब्बत, नेपाल, बर्मा, मलेशिया, सिंगापुर, जावा, सुमात्रा, बाली, स्याम तथा कंबोडिया आर्य संस्कृति से प्रभावित हुए। यद्यपि फिलीपीन्स, चीन तथा जापान की भाषाओं में भी संस्कृत के शब्द मिलते हैं परन्तु उपमहाद्वीप की भाषाओं में संस्कृत का शत-प्रतिशत प्रभाव है।
- आर्यों की भाषा के कुछ शब्द एशिया तथा यूरोप की किसी भी आर्य भाषा में नहीं मिलते, वे वैदिक संस्कृत में मिलते हैं। इससे पता चलता है कि वैदिक संस्कृत सबसे पुरानी बिना मिलावट की भाषा है। इससे इस बात का भी खंडन होता है सप्तसिंधु आर्यों की यात्रा का अंतिम पड़ाव था। वैदिक आर्य सप्तसिंधु में आने वाली नहीं बल्कि यहां से बाहर जाने वाली जाति थी।
अली हसन लिखते हैं कि मध्यकालीन इतिहासकार- व्रद्धगर्ग, वाराहमिहिर तथा कल्हण महाभारत युद्ध को २४९९ ईपू में हुआ बताते हैं। अब्बूरेहन अलबेरूनी जो इस महाद्वीप में ११वीं सदी के प्रारंभ में वर्षों रहे तथा जिनका न केवल संस्कृत साहित्य अपितु यहां के इतिहास पर भी पूरा अधिकार था, ने अपनी पुस्तक किताब-उल-हिंद अध्याय १९ में गणनाओं के साथ भिन्न-भिन्न कालों का विवेचन किया है। वे कहते हैं कि यदि यज्दीजर्द का ४००वां वर्ष परीक्षण वर्ष या तुलना का पहला पैमाना माना जाए तो हमारे मापन वर्ष से पहले ३४९७ वर्ष इस युुद्ध को हुए हो गए। अबुल फजल ने यह घटना ३००० ईपू की बताई है।
मैगस्थनीज, चौथी सदी ईपू के यूनानी यात्री, ने श्रीकृष्ण और चंद्रगुप्त के बीच १३८ राजाओं के राज्य करने का उल्लेख किया है। चंद्रगुप्त ३१२ ईपू में गद्दी पर बैठा। एक शिलालेख पर कलि संवत लिखा है, कलि संवत महाभारत युद्ध के तुरन्त बाद शुरू हुआ था। विक्रम संवत से तुलना करने पर, विक्रम संवत ईस्वी संवत से ५७ वर्ष पुराना है, युद्ध का समय ३१०१ ईसा पूर्व आता है। पुराने समय में आर्यभट्ट ने भी यही समय बताया है।
राणा अली हसन ने लिखा है कि लाहौर के मशहूर अखबार जंग ने १७ अक्टूबर १९८४ को दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस में डॉक्टर डीएस त्रिवेदी के छपे एक लेख के हवाले से लिखा है कि महाभारत का युद्ध १४ नवंबर ३१३७ ईपू दिन मंगलवार को शुरू हुआ था। वे लिखते हैं कि यदि द्वापर, त्रेता की अवधि कम से कम दस-दस हजार साल की मानी जाए तो वेद की रचना २५ हजार साल पहले की साबित होती है। वैदिक आर्यों के पूर्वज इस उपमहाद्वीप में इससे भी पहले से रह रहे थे। अठारह पुराणों में मानव की उत्पत्ति, राजाओं तथा ऋषियों आदि का वर्णन मिलता है। प्राचीनतम पुराण वेद से भी पुराना है जैसा कि अथर्व वेद में पुराण का नाम दिया गया है। साधारण जनता के लिए उपनिषद के रूप में साधारण साहित्य की रचना हुई। समाज के लिए विधि निषेध स्मृतियों में दिए गए। श्रुतियों में ऋषियों के प्रवचन का संकलन किया गया। युद्धों तथा वीरों की वीरता का वर्णन महाकाव्यों में लिखा है। इससे यह सिद्ध होता है कि आर्यों के पूर्वज मानव की उत्पत्ति से या इतिहास के अज्ञात समय से इस देश में रह रहे हैं।
संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं के सामान्य स्रोत या उद्गम की खोज की दौड़ १७८४ ईस्वी में शुरू हुई। आर्यावर्त को आर्यों की मूल मातृभूमि तथा संस्कृत को उनकी भाषा सिद्ध करने के लिए बहुत पुराना तथा विशाल संस्कृत साहित्य है। परन्तु योरोप के लोगों ने भाषा शास्त्र, ऐतिहासिक तथ्यों तथा वास्तविकताओं को बहुत तोड़ा मरोड़ा है। आर्यों को इस उपमहाद्वीप से बाहर का साबित करने के लिए विभिन्न मत प्रतिपादित किए गए परन्तु उनके द्वारा इस विषय में दिए गए तर्क आर्यावर्त को आर्यों का मूलस्थान सिद्ध करने में ही प्रयुक्त हो सकते हैं।
- महाभारत में प्राग्ज्योतिष पुर आसाम, किंपुरुष नेपाल, हरिवर्ष तिब्बत, कश्मीर, अभिसार राजौरी, दार्द, हूण हुंजा, अम्बिस्ट आम्ब, पख्तू, कैकेय, गन्धार, कम्बोज, वाल्हीक बलख, शिवि शिवस्थान-सीस्टान-सारा बलूच क्षेत्र, सिंध, सौवीर सौराष्ट्र समेत सिंध का निचला क्षेत्र दण्डक महाराष्ट्र सुरभिपट्टन मैसूर, चोल, आन्ध्र, कलिंग तथा सिंहल सहित लगभग दो सौ जनपद महाभारत में वर्णित हैं जो कि पूर्णतया आर्य थे या आर्य संस्कृति व भाषा से प्रभावित थे। इनमें से आभीर अहीर, तंवर, कंबोज, यवन, शिना, काक, पणि, चुलूक चालुक्य, सरोस्ट सरोटे, कक्कड़, खोखर, चिन्धा चिन्धड़, समेरा, कोकन, जांगल, शक, पुण्ड्र, ओड्र, मालव, क्षुद्रक, योधेय जोहिया, शूर, तक्षक व लोहड़ आदि आर्य खापें विशेष उल्लेखनीय हैं।
राणा अलीहसन चौहान लिखते हैं कि पुराने वंशों से नए नाम के साथ नई-नई जातियां और कबीले बन जाते हैं। इक्ष्वाकु, पुरु व यदुकुल के उच्च श्रेणी के क्षत्रिय रक्त व साहसिक कार्यों के आधार पर संगठित हो गए तथा गुर्जर नाम से प्रसिद्ध हुए। उस समय गुर्जरों के अधीन जो क्षेत्र था, उसे गुर्जर देश या गुर्जरात्रा कहा जाता था।
संस्कृत में यदि किसी अक्षर पर बिंदु लगा दिया जाए तो वह अक्षर नाक में बोला जाता है, जैसे मां, हां आदि। गुरं का अर्थ शत्रु होता है। उज्जर का अर्थ नष्ट करने वाला। इसमें बिंदु का धीरे-धीरे लोप हो गया तथा गुर उज्जर मिल कर कालक्रम से गुर्जर बन गया जिसका अर्थ है शत्रु को नष्ट करने वाला। यह पुल्लिंग है। अली हसन ने अपने मत की पुष्टि के लिए संस्कृत शब्दकोष, कलद्रुपम का हवाला दिया है जिसे पंडित राधाकांत शर्मा ने संपादित किया है।
गुर्जर राजाओं व गुर्जर जाति का वर्णन करते हुए राणा अलीहसन ने लिखा है कि विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं का पहला निशाना गुर्जर अधिपति ही बने। चाहे वे सिंध के राजा दाहिर रहे हों या सिकंदर से लोहा लेने वाले पोरस। गुर्जर प्रतिहार का एक जमाने में पूरे देश में एकक्षत्र राज्य था। इस जाति के एक प्रतापी नरेश राजा मिहिरभोज ने ईस्वी सन् ८३६ से ८८८ तक कन्नौज में राज किया था। उनके राज्य की सीमाएं पश्चिम में गांधार और काबुल से लेकर पूरब में बर्मा तक फैली थीं। अलीहसन साहब लिखते हैं कि पृथ्वीराज चौहान जैसे वीर गुजर शासकों के पतन के बाद राजपूताने में जो शासक बैठे वे गुर्जर नरेशों की ही संतानें थीं लेकिन उन्होंने चूंकि मुगल व उनके पहले आए तुर्कों न गुर्जरों को उपेक्षित कर रखा था इसलिए उन्होंने खुद को राजपूत कहना शुरू किया यानी राजाओं के पुत्र। बाद में १९ वीं सदी में जब अंग्रेजों ने वीरगुर्जरों के विद्रोहों से आजिज आकर उन्हें जरायमपेशा घोषित कर दिया तो राजपूतों ने उनसे अलग दिखने के लिए कर्नल टॉड जैसे मुंशी का सहारा लिया और उसे रिश्वत देकर अपना एक अलग इतिहास लिखाया जिसमें राजपूतों को एक अलग जाति करार दिया गया।
 http://tukdatukdazindagi.blogspot.in से साभार
  • शंभूनाथ शुक्ल
पेशे से मैं पत्रकार हूं और यही दाल रोटी का जुगाड़ है। सामाजिक विषयों में मेरी रुचि है। किसी तरह के धार्मिक कर्मकांड में मेरी कोई आस्था नहीं है। ईश्वर के बारे में मैं यही कहना चाहता हूं कि इसे जनता को बेवकूफ बनाने के लिए कुछ चतुर लोगों ने ईजाद किया है। अपने पेशे और कर्म की दृष्टि से मैं ईमानदार हूूं। न वैचारिक रूप से करप्ट हूं न आर्थिक तौर पर।

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

मिहिर उपासक वाराह पर्याय हूण



             मिहिर उपासक वाराह पर्याय हूण
           (गुर्जरों की हूण उत्पत्ति पर नवीन दृष्टी)
                                   डा. सुशील भाटी
                                   प्रवक्ता, इतिहास विभाग,
                                   राजकीय महाविद्यालय बाजपुर,
                                   उधम सिंह नगर|
                                   मो.09411445677 
   पांचवी शताब्दी के अंत में श्वेत हूणों ने पश्चिमोत्तर से भारत में विजेता के तौर पर प्रवेश किया| उन्होंने तोरमाण और उसके बेटे मिहिरकुल के नेतृत्व में उत्तर भारत से गुप्तो के प्रभुसत्ता समाप्त कर हूण साम्राज्य की स्थापना की| तोरमाण ने ग्वालियर के निकट चम्बल नदी के किनारे स्थित पवैय्या को और मिहिरकुल ने स्यालकोट, पंजाब को अपनी राजधानी बनाया| भारत में हूण साम्राज्य आधी शताब्दी से अधिक (475-533 ई.) तक स्थिर रहा| मिहिरकुल के हाथ से 533 ई.में उत्तर भारत का साम्राज्य निकल जाने के बाद भी हूण पश्चिमोत्तर भारत और काश्मीर में लंबे समय तक राज करते रहे|  पुराणों के अनुसार उन्होंने भारत में तीन सौ साल राज किया|

चीनी स्त्रोतों के अनुसार श्वेत हूण 125 ई. में आधुनिक चीनी प्रान्त सिकियांग के उत्तरी इलाके ज़ुन्गारिया में चीन की महा दीवार के उत्तर में रहते थे| इतिहासकारों के अनुसार भारत आने वाले श्वेत हूणों की शक्ति का उदय पांचवी शताब्दी में उत्तर-पूर्वी इरान और पश्चिमोत्तर भारत में हुआ| ये भारोपीय भाषा समूह की पूर्वी ईरानी भाषा बोलते थे| इनकी भाषा में तुर्की भाषा का प्रभाव भी दिखाई देता हैं| श्वेत हूण इरान के ज़ुर्थुस्त धर्म से प्रभावित थे और वे सूर्य और अग्नि के उपासक थे, जिन्हें वो अपनी भाषा में क्रमश मिहिर और अतर कहते थे| प्राचीन चीनी इतिहासकारों एवं प्रोपीकुयस के अनुसार श्वेत हूण यूची-कुषाण कबीलो से सम्बंधित लोग थे, जोकि हिंग नु जाति के हमले के समय तारीम घाटी में ही रह गए थे| | यूची, ईसा से पूर्व, चीनी तुर्केस्तान स्थित तारिम घाटी में रहने वाले भारोपीय भाषा समूह की पूर्वी ईरानी बोलने वाले नार्डिक/आर्य नस्ल के लोग थे| यूची भी मिहिर-सूर्य और अतर-अग्नि  के उपासक थे| ईसा की पहली तीन शताब्दियों में, कुषाणों के नेतृत्व में यूचियो ने, बक्ट्रिया को आधार बना कर मध्य एशिया और उत्तर भारत में एक साम्राज्य का निर्माण किया| इनका सबसे प्रभावशाली सम्राट कनिष्क था, जिसने पेशावर से राज किया| कुषाणों के अभिलेख ईरानी प्रभाव वाली खरोष्टी और यूनानी लिपि में मिले हैं|

श्वेत हूणों से पहले हूणों कि एक अन्य शाखा हारा हूण ने भारत में अपनी उपस्तिथि दर्ज कराई | यहाँ हारा शब्द का अर्थ लाल अथवा दक्षिणी हैं| चीनी स्त्रोतों के अनुसार हूणों की वो शाखा जो किदार (320 ई.) के नेतृत्व में दक्षिणी बक्ट्रिया में शक्तिशाली हुई वो हारा हूण’ (Red Xionites or Red Huns) कहलाई| हारा हूणों को इनके संथापक शासक किदार  के नाम पर, किदार हूण ( kidarite Xionites or Kidarite Huns) भी कहा जाता था| कालांतर में इन्ही हूण कबीलो में से कुछ वुसुन जाति से पराजित होकर पश्चिमी बक्ट्रिया में बस गए| यहाँ ये हेप्थलाइट वंश के नेतृत्व में पुनः शक्तिशाली हो गए और श्वेत हूण कहलाने लगे| इस प्रकार हारा हूणों और श्वेत हूणों में कोई अंतर नहीं था, फर्क केवल स्थान का था, श्वेत हूण का मतलब हैं- पश्चिमी हूण  और हारा हूण का अर्थ हैं- दक्षिणी हूण| हारा हूणों ने किदार द्वितीय (360 ई.), जोकि पश्चिमोत्तर सिंधु घाटी में कुषाणों का सामंत था, के नेतृत्व में अंतिम कुषाण राजा को हरा कर भारत में अपनी शक्ति को प्रतिष्ठित किया था| हारा हूण अपने को कुषाण कहते थे, इन्होने कुषाणों की उपाधि शाही भी धारण की थी| किदार के सिक्को पर उसके नाम के साथ शाही और कुषाण लिखा मिला हैं| स्पष्ट हैं कि हारा हूण अपने को कुषाणों से सम्बंधित मानते थे और उनके साम्राज्य पर अपना वैध अधिकार मानते थे| एकता के इन प्रयासों से हारा हूणों और कुषाण कबीले एकाकार हो गए| इन्ही कारणों से इतिहासकार हारा हूणों को किदार कुषाण भी कहते हैं| कालिदास के ग्रन्थ रघुवंशम में, गांधार स्थित जिन हूणों का ज़िक्र हुआ हैं वो, तथा वो हूणों जिन्हें स्कंदगुप्त ने 455 ई. में पराजित किया था, सभी हारा हूण थे| भारतीय भी सामान्यत हारा हूण और श्वेत हूणों में अंतर नहीं समझते थे| संभवतः, हारा हूणों ने पश्चिमी तथा दक्षिणी राजस्थान और मालवा के इलाके में अपना प्रभाव बना लिया था| कालांतर में श्वेत हूणों ने भारत प्रवेश के समय सबसे पहले हारा हूणों को पराजित कर उनके इलाको को ही अपने अधीन किया था|

 हूण मुख्य रूप से मिहिर यानि सूर्य के उपासक थे, यहाँ तक कि हूणों को मिहिर भी कहा जाता था| हूणों के प्रसिद्ध नेता मिहिरकुल के एक सिक्के पर उसका नाम सिर्फ मिहिर अंकित हैं| हूणों ने भारत में अनेक सूर्य मंदिरों का निर्माण कराया| कुछ इतिहासकारों का मानना हैं कि मुल्तान और भीनमाल के सूर्य मंदिरों का निर्माण हूणों ने बौद्ध मंदिरों को ध्वस्त कर उनके भग्नावेशो पर करवाया था| कुछ अन्य इतिहासकार इन दोनों सूर्य मंदिरों की स्थापना का श्रेय कुषाणों को देते हैं| मिहिरकुल ने ग्वालियर में किले का निर्माण कराया था और वह एक सूर्य मंदिर की स्थापना की| इस मंदिर से उसका एक अभिलेख भी मिला हैं| मिहिरकुल के सिक्को पर सासानी प्रभाव वाली ईरानी ढंग की अग्नि वेदी सेविकाओ के साथ और सूर्य का प्रतीक रथ चक्र दिखाई देते हैं, जोकि हूणों के सूर्य और अग्नि उपासक होने के प्रमाण हैं| वैसे, भारत में सासानी प्रभाव से युक्त ईरानी ढंग की वेदी वाले सिक्के सबसे पहले हारा हूणों ने चलाये थे, इन सिक्को पर अग्नि वेदी सेविकाओ के साथ दिखाई देती हैं|
             

हूणों मिहिर के अलावा वाराह के भी उपासक थे| वराह पूजा की शुरुआत भारत के मालवा और ग्वालियर इलाके में लगभग उस समय हुई जब हूणों ने यहाँ प्रवेश किया| आरम्भ में हूण पश्चिमी तथा दक्षिणी राजस्थान, मालवा और ग्वालियर इलाको में शक्तिशाली हुए| यही पर हमें हूणों के प्रारभिक सिक्के और अभिलेख मिलते हैं| भारत में हूण शक्ति को स्थापित करने वाले उनके नेता तोरमाण ने इसी इलाके के एरण, जिला सागर, मध्य प्रदेश में वाराह अवतार की विशालकाय मूर्ति स्थापित कराई थी जोकि भारत में प्राप्त सबसे पहली वाराह मूर्ति हैं| तोरमाण के शासन काल के प्रथम वर्ष का अभिलेख इसी मूर्ति से मिला हैं, अभिलेख की शुरुआत वाराह अवतार की प्रार्थना से होती हैं, जोकि इस बात का सबूत हैं कि हूण और उनका नेता तोरमाण भारत प्रवेश के समय से ही वाराह के उपासक थे| पूर्व ग्वालियर रियासत स्थित उदयगिरी की गुफा में वाराह अवतार पहला चित्र मिला हैं, जोकि हूणों के आगमन के काल का ही हैं|  

साइबेरिया में वाराह के सिर वाले देवताओ का चलन पहले से ही था और  मध्य एशियाई शक, हूण आदि कबीले इससे पहले से ही प्रभावित थे| इतिहासकार आर. गोइत्ज़ (R. Goetz) के अनुसार जिस समय भारत में वाराह देवता का आम चलन हुआ, उसी समय इरानी दुनिया, अफगानिस्तान, और सासानी साम्राज्य में भी वाराह ज़ुर्थुस्त भगवान वेरेत्रघ्न के रूप में पहली बार दिखाई देता हैं| उस समय हिंदू, बौद्ध और ईरानी, सभी को, श्वेत हूणों के साथ संघर्ष करना पड़ रहा था, इसलिए इस सम्प्रदाय का साँझा स्त्रोत हूणों के साथ खोजना ही अधिक तर्कसंगत हैं| वैष्णव, तांत्रिक बौद्ध और ज़ुर्थुस्त धर्मो में वाराह देवता का एक साथ पर होने वाला ये उभार, संभवतः, हूणों या गुर्जरों से सम्बंधित किसी कबीलाई सौर देवता को अपने धर्मो में अवशोषित करने के प्रयास था|

गोएत्ज़, एरण स्थित वाराह मूर्ति को वाराह-मिहिर की मूर्ति बताते हैं और इसकी स्थापना का श्रेय तोरमाण हूण को देते हैं| गोएत्ज़ कहते हैं, क्योकि हूण सूर्य उपासक थे, इसलिए वाराह और मिहिर का संयोग सुझाता हैं कि वाराह उनके लिए सूर्य के किसी आयाम का प्रतिनिधित्व करता था| उनकी इस बात की पुष्टि ईरानी ग्रन्थ जेंदा अवेस्ता के मिहिर यास्त से होती हैं, जिसमे कहा गया हैं कि मिहिर/सूर्य जब चलता हैं तो वेरेत्रघ्न वाराह रूप में उसके साथ चलता हैं| वेरेत्रघ्न युद्ध में विजय का देवता हैं| इसके भारतीय देवता विष्णु की तरह दस अवतार हैं| दोनों का ही, एक अवतार वाराह भी हैं|

हालाकि वाराह अवतार को उपनिषदो में चिन्हित किया जाता हैं, लेकिन इसे मुख्य रूप से हूणों और गुर्जरों से जोड़ा जाना चाहिए| यधपि वाराह अवतार पहले से ज्ञात था, परन्तु सम्भावना हैं कि यह किसी विदेशी कबीलाई पंथ के स्थानपन्न के रूप में लोकप्रिय हुआ होगा| यही कारण हैं कि उत्तर भारत में वाराह अवतार की अधिकतर मूर्तिया 500-900 ई. के मध्य की हैं, जोकि हूण-गुर्जरों का काल हैं| हूणों का नेता तोरमाण वाराह अवतार का भक्त था और गुर्जर सम्राट मिहिरभोज भी वाराह उपासक था| अधिकतर वाराह मूर्तिया, विशेषकर वो  जोकि विशुद्ध वाराह जानवर जैसी हैं, गुर्जर-प्रतिहारो के काल की हैं| तोरमाण हूण द्वारा एरण में स्थापित वाराह मूर्ति भी विशुद्ध जानवर जैसी हैं| 1000 ई. के बाद की वाराह मूर्तिया तो इक्की-दुक्की ही मिलती हैं| इसी समय सूर्य देवता का भी लोकप्रिय चलन हुआ, जोकि इसी (वाराह की) तरह विदेशी मिहिर देवता का अनुकूलन था|

विष्णु भी वेरेत्रघ्न और वाराह की तरह सूर्य/मिहिर से सम्बंधित देवता हैं, इस कारण से भी हूणों के आगमन पर विष्णु के वाराह अवतार की पूजा को बल मिला होगा| भारत और इरान की कुछ सांझी अथवा सामानांतर मिथकीय परंपरा हैं, जो दोनों देशो की विरासत हैं, वाराह अवतार की पूजा भी इनमे से एक हैं|

यूरोप में वाराह (जंगली सूअर) को हूणों का पर्याय माना जाता हैं, इसे हूणों कि शक्ति और साहस का प्रतीक समझा जाता हैं| यूरोप में हंगरी हूणों के वंशजो का देश हैं| रोमानिया और हंगरी में विशालकाय वाराह की प्रजाति को आज भी अटीला पुकारते हैं| अटीला(434-455 ई.) हूणों के उस दल का नेता था जिसने पांचवी शताब्दी में रोमन साम्राज्य को पराजित कर यूरोप में तहलका मचा दिया था| यूरोप के बोहेमिया देश में हूणों से सम्बंधित एक प्राचीन राजपरिवार का नाम बोयर अथवा बुजाइस हैं| बोयर का अर्थ हैं जंगली सूअर/वाराह जैसा आदमी| भारत के इतिहास में भी वाराह हूणों का पर्याय मालूम पड़ता हैं| कल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार विष्णु के वाराह और नरसिंह अवतारों द्वारा मारे जाने वाले दैत्यों के नामधारी राजा हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप पंजाब में हूणों के पड़ोस में राज़ करते थे| संभवत: हूणों ने इन्हें मारा हो| इस प्रकार विष्णु के अवतार वाराह द्वारा दैत्य हिरण्याक्ष के वध की कथा में वाराह पर्याय हूण और उनके पडोसी राजा हिरण्याक्ष के मध्य हुए युद्ध का अक्स दिखाई पड़ता हैं| गोएत्ज़ के अनुसार हूणों के निष्काषन के बाद एरण में, हूणों द्वारा निर्मित वाराह मूर्ति के पास ही एक नरसिंह अवतार का मंदिर बनवाया गया| यह मात्र वाराह मूर्ति के घटते हुए महत्व का ही नहीं  दर्शाता हैं, बल्कि वाराह पर्याय हूणों कि पराजय का भी ध्योतक हैं|

भारत और इरान दोनों देशो में मिहिर-सूर्य पूजा और वाराह पूजा संयुक्त धार्मिक विश्वास हैं| मिहिर-सूर्य और वाराह के आपसी जुडाव का इस बात से भी अहसास होता हैं कि कृष्ण के पुत्र साम्ब द्वारा भारत में पहले सूर्य मंदिर कि स्थापना और सूर्य पूजा के लिए शक द्वीप से मग ब्राह्मणों को बुलाने की कथा भी वाराह नामक पुराण में आती हैं| वाराह और सूर्य के धार्मिक विश्वास की संयुक्तता की अभिव्यक्ति कुछ स्थानो और व्यक्तियों के नामो में भी दिखाई देता हैं, जैसे- उत्तर प्रदेश के बहराइच स्थान का नाम वाराह और आदित्य शब्दों से वाराह+आदित्य= वाराहदिच्च/ वाराहइच्/ बाहराइच/ बहराइच होकर बना हैं| मिहिरकुल हूण ने अपने पराभव काल में कश्मीर में शरण ली थी, उसने श्री नगर के निकट मिहिरपुर नगर बसाया था| कश्मीर में ही बारामूला नगर हैं ,जोकि प्राचीन काल के वाराह+मूल स्थान का अपभ्रंश हैं| मूल सूर्य का पर्याय्वाची हैं|  इसी प्रकार तोरमाण  हूण (475-515.) और मिहिकुल हूण (515-533 ई.) के समकालीन भारतीय नक्षत्र विज्ञानी वाराह-मिहिर (505-587 ई.) के नाम में तो दोनों शब्द एक दम साफ़ तौर पर देखे जा सकते हैं| इतिहासकार डी. आर. भंडारकर वाराह मिहिर को ईरानी मूल का मग पुरोहित मानते हैं| इस प्रकार प्रतीत होता हैं कि वाराह और मिहिर परस्पर जुड़े हुए धार्मिक विश्वास हैं, जोकि ज़ुर्थुस्थ धर्म से प्रभावित हूणों के साथ भारत आये|

वाराह और मिहिर की युति हमें गुर्जर-प्रतिहार सम्राट भोज महान के मामले में भी दिखाई देती हैं| भोज का वास्तविक नाम मिहिर था, भोज उसकी उपाधि थी| इसलिए बहुत से इतिहासकारों ने उसका नया नाम गढ़ दिया- मिहिरभोज| भोज की एक अन्य उपाधि वाराह थी, उत्तर भारत के बहुत से स्थानों से हमें  भोज महान के वाराह के चित्र वाले  चांदी के सिक्के प्राप्त हुए हैं, जिन पर श्रीमद आदि वाराह लिखा हैं| समकालीन अरबी  इतिहासकारों ने सभी गुर्जर-प्रतिहार सम्राटों को बौरा यानि वाराह कहा हैं, यह इनका पारवारिक उपनाम मालूम पड़ता हैं| यहाँ आपको याद दिला दू कि ठीक इसी प्रकार यूरोप में हूणों को वाराह कहा जाता रहा हैं, और यूरोप के बोहेमिया में भी हूणों से सम्बंधित एक राजपरिवार को बोयर/वाराह कहा जाता था||

भोज महान को भौणा भी कहते थे, समकालीन अरब इतिहासकारों द्वारा गुर्जर सम्राटों के लिए जो बौरा शब्द प्रयोग किया गया हैं वो संभवतः भौणा का ही अरबी रूपांतर हैं| यह भी संभव हैं कि भौणा हूण-गुर्जरों के उस कबीलाई देवता का नाम हो, जिसे भारत में विष्णु के वाराह अवतार के रूप में अपना कर हूण-गुर्जरों को भारतीय समाज में अवशोषित करने का प्रयास किया गया हो, क्योकि भौणा आज भी राजस्थान में गुर्जरों का कबायली देवता हैं, जोकि युद्ध में विजय का देवता माना जाता हैं| गुर्जर संघर्ष के स्थितियों में जय भौणा का घोष कर आगे बढते हैं| ईरानी वाराह देवता वेरेत्रघ्न भी गुर्जर कबायली देवता भौणा तरह युद्ध में विजय का देवता हैं| वेरेत्रघ्न और भौणा देवता की यह समानता भी इनके हूण स्त्रोत की तरफ इशारा कर रही हैं|

भारतीय इतिहास में हूणों और गुर्जर प्रतिहारो के बीच बहुत से सामानांतर तथ्य हैं| ग्वालियर से मिहिरकुल हूण (515-533 ई.) का एक अभिलेख मिला हैं| भोज महान (836-885 ई.) का भी एक अभिलेख ग्वालियर से मिला हैं, कन्नौज से विस्थापित होने के बाद प्रतिहारो ने ग्वालियर को ही अपना केन्द्र बनाया था| ग्वालियर इलाका पहले हूणों का और कालांतर में गुर्जरों के शक्ति का केंद्र रहा हैं| गुर्जरों की घनी आबादी और प्राचीन काल से ही यहाँ हूण-गुर्जरों के शक्तिशाली होने के कारण ग्वालियर इलाका उन्नीसवी शताब्दी तक गूजराघार कहलाता था|

भोज महान के वास्तविक नाम मिहिर और हूण सम्राट मिहिरकुल के नाम में मिहिर शब्द की समानता भी कम उलेखनीय नहीं है| मिहिरकुल हूण को मिहिर भी कहा जाता था, उसके एक सिक्के पर उसका नाम सिर्फ मिहिर अंकित हैं|  मिहिरकुल हूण के सिक्को की भाति हमें भोज महान के सिक्के भी ईरानी सासानी ढंग के हैं और इन पर भी सेविकाओ सहित अग्नि वेदिका और सूर्य का प्रतीक रथ चक्र अंकित हैं| प्रो. विशम्बर शरण पाठक का मत हैं कि मिहिरभोज की मुद्राओ पर चित्रित अग्नि और उसके खुद का नाम मिहिर होना उसे सूर्य उपासना से जोड़ते हैं| प्रो. पाठक का यह कथन मिहिरकुल पर भी लागू होता हैं|

हूण सम्राट तोरमाण और मिहिरकुल भैंस के सिर वाला चांदी का मुकुटपहनते थे| जोकि हूण-गुर्जरों का प्राचीन काल से ही भैस पालक होने का प्रमाण हैं| जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड के घुमुन्तु चरवाहे गुर्जर आज भी भैस पालक ही हैं| हूणों के इतिहास से समानता रखने वाले गुर्जर सम्राट भोज महान से जुड़े उपरोक्त सभी तथ्य गुर्जरों की हूणों से उत्पति के सिद्धांत को मज़बूत आधार प्रदान करते हैं|

इतिहासकार वी. ए. स्मिथ और विलियम क्रुक ने गुर्जरों को हूणों से सम्बंधित माना हैं| उनके अनुसार इसकी प्रमुख वजह यह थी कि छठी शताब्दी में गुर्जरों का उदय पश्चिमी भारत में ठीक हूणों के आक्रमण और उनके पतन के बाद हुआ| | कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों की उत्पत्ति खज़र नामक कबीले से मानते हैं, वे खज़र जाति को श्वेत हूणों की शाखा मानते हैं| डी. आर. भंडारकर के अनुसार चन्द्र बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो में अग्निकुंड से उत्पन्न बताये गए राजघराने गुर्जर-प्रतिहार, चालुक्य/सोलंकी, परमार/पंवार और चौहान  खज़र-हूण मूल के गुर्जर थे| इतिहासकार होर्नले तोमर, कछवाहो और चालुक्यो को हूण मूल का गुर्जर मानते हैं| होर्नले के अनुसार मालवा में यशोधर्मण से 528 ई. में हारने के  के पश्चात हूणों का एक दल नर्मदा नदी पार कर दक्कन चल गया, कालांतर में इन्होने ही वातापी के चालुक्य वंश कि स्थापना की| गुर्जर-प्रतिहारो की तरह ही चालुक्यो का शाही निशान भी वाराह था| उनके सिक्को पर भी वाराह अंकित रहता था| इन सिक्को को वाराह के नाम से पुकारा जाता था|  चालुक्यो ने हूण नाम के सिक्के भी चलवाए| ऐसा प्रतीत होता हैं कि, सातवी शताब्दी में गुर्जरों का उत्थान वास्तव में एक नए जातिय नाम के साथ  हूणों का ही पुनरुत्थान था|

सूर्य और वाराह पूजा हूणों की ही तरह उनके वंशज कहे जाने वाले गुर्जरों में विशेष रूप से विधमान रही हैं| इस बात की पुष्टि गुर्जरों से जुड़े रहे स्थलों पर दृष्टी डालने से हो जाती हैं| सातवी शताब्दी में लिखित बाण भट्ट कृत हर्षचरित में गुर्जरों का पहली बार उल्लेख हुआ हैं| इसी काल में चीनी यात्री हेन सांग (629-645 ई.)भारत आया था, उसने अपनी पुस्तक सीयूकी में आज के राजस्थान को गुर्जर देश कहा हैं और भीनमाल को इसकी राजधानी बताया| भीनमाल से इस काल में निर्मित सूर्य देवता के प्रसिद्ध जग स्वामी मंदिर के भग्नावेश मिले हैं| यहाँ एक वाराह मंदिर भी हैं| गुर्जरों का पहला अभिलेख भडोच, सूरत से प्राप्त हुआ हैं| यह भडोच के शासक दद्दा द्वितीय (633 ई.) का हैं| इस अभिलेख पर सूर्य शाही निशान(emblem) के तौर पर मौजूद हैं| इस प्रकार स्पष्ट हैं कि  गुर्जर आरम्भ से ही सूर्य और वाराह के उपासक थे|

 गुर्जर प्रतिहारों की राजधानी कन्नौज में भी वाराह की पूजा होती थी और वहा वाराह का मंदिर भी था| पुष्कर जोकि गुर्जरों का सबसे बड़ा तीर्थ माना जाता हैं, यहाँ से सौ मील के दायरे तक के गुर्जर अपने मृतको के अंतिम संस्कार के लिए यहाँ आते हैं| यहाँ भी वाराह मंदिर और वाराह घाट हैं| वाराह घाट पर स्नान करना सबसे अधिक पुण्य प्रदान करने वाला मन जाता हैं| पदम पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने पुष्कर में, गुर्जर कन्या गायत्री से विवाह कर, एक हवन किया था| यहाँ ब्रह्मा और गायत्री के मंदिर भी हैं| गायत्री मन्त्र सूर्य आराधना से सम्बंधित हिन्दुओ का सबसे महत्वपूर्ण मन्त्र माना जाता हैं| सूर्य सम्बन्धी गायत्री मन्त्र का व्यक्तिकरण गुर्जर कन्या के रूप होना, निसंदेह गुर्जरों का विशेष रूप से सूर्य उपासक होने का प्रमाण है|

मथुरा भी ऐतिहासिक तौर पैर गुर्जरों से जुडा रहा हैं और यहाँ आज भी गुर्जरों की आबादियाँ हैं| इतिहासकार केनेडी मथुरा के कृष्ण की बाल लीलाओ की कथाओ के प्रचलन का श्रेय गुर्जरों को देते हैं| मथुरा में भी प्राचीन वाराह मंदिर हैं| कुछ इतिहासकारों का मत हैं की मथुरा शब्द मिथरा से बना जिसका अर्थ हैं-सूर्य|

मिहिरऔर वाराहहूणों और गुर्जरों दोनों के ही समान रूप से ने केवल आराध्य थे बल्कि ये इनके उपनाम और उपाधि भी थे| डी. आर. भंडारकर ने गुर्जरों के पहचान हूणों से की हैं क्योकि हूणों को मिहिर भी कहते थे और मिहिर आज भी अजमेर राजस्थान में गुर्जरों सम्मानसूचक उपाधि हैं| यूरोप में वाराह हूणों का पर्याय रहा हैं और भारत में वाराह प्रतिहार वंश के गुर्जर सम्राटों की उपाधि थी| उपरोक्त तथ्य गुर्जरों कि हूण उत्पत्ति का डंका बजा रहे हैं| साथ ही यह बात भी साफ़ हो रही हैं कि भारत आने वाले श्वेत हूण और अटीला के नेतृत्व में यूरोप जाने वाले हूण सिर्फ नाम ही नहीं जातिय तौर पर भी एक ही थे|


गुर्जर समाज के लिए स्मरणीय तिथियाँ




गुर्जर समाज के लोग इन तिथियों पर कार्यक्रमों का आयोजन कर, समाज और देश की प्रगति के विषय में, चिंतन और विचार-विमर्श कर सकते हैं ----- डा. सुशील भाटी

10 फरवरी  - राजेश पायलट जयंती
27 फरवरी - विजय सिंह पथिक जयंती/किसान दिवस
5 मार्च    - मराठा सेनापति प्रताप राव गूजर का बलिदान दिवस
10 मई    - धन सिंह कोतवाल स्मृति दिवस/क्रांति दिवस
28 मई    - विजय सिंह पथिक जी की पुण्य तिथि
3 अक्टूबर  - राजा विजय सिंह एव कल्याण सिंह (कलवा गूजर) का बलिदान दिवस
31 अक्टूबर - भारत रत्न सरदार वल्लभ भाई पटेल जयंती/अखंडता दिवस

भारतीय पंचांग के अनुसार गुर्जर समाज के लिए कुछ स्मरणीय तिथियाँ

माघ की शुक्ल पक्ष की सप्तमी देवनारायण जयंती
फाल्गुन/श्रावण के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी  - शिव रात्रि/शिव भक्त सम्राट मिहिरकुल हूण स्मृति दिवस
भादों की शुक्ल पक्ष की द्वितीया वराह जयंती/आदि वराह सम्राट मिहिर भोज स्मृति दिवस
कार्तिक के शुक्ल पक्ष की षष्ठी सूर्य षष्ठी/सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क कुषाण/कसाना स्मृति दिवस