सोमवार, 5 नवंबर 2012

भारतीय राष्ट्रीय संवत- शक संवत 2


                                                डा. सुशील भाटी
                                           प्रवक्ता, इतिहास विभाग,
                                 राजकीय महाविद्यालय लक्सर,हरिद्वार
                                             मो. 09411445677

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कनिष्क के राज्य काल में भारत में व्यापार और उद्योगों में अभूतपूर्व तरक्की हुई क्योकि मध्य एशिया स्थित रेशम मार्ग जिससे यूरोप और चीन के बीच रेशम का व्यापार होता था उस पर कनिष्क का कब्ज़ा था| भारत के बढते व्यापार और आर्थिक उन्नति के इस काल में तेजी के साथ नगरीकरण हुआ| इस समय पश्चिमिओत्तर भारत में करीब 60 नए नगर बसे और पहली बार भारत में कनिष्क ने ही बड़े पैमाने सोने के सिक्के चलवाए|

कुषाण/कसाना समुदाय एवं उनका नेता कनिष्क मिहिर (सूर्य) और अतर (अग्नि) के उपासक थे| उसके विशाल साम्राज्य में विभिन्न धर्मो और रास्ट्रीयताओं के लोग रहते थे| किन्तु कनिष्क धार्मिक दृष्टीकोण से बेहद उदार था, उसके सिक्को पर हमें भारतीय, ईरानी-जुर्थुस्त और ग्रीको-रोमन देवी देवताओं के चित्र मिलते हैं| बाद के दिनों में कनिष्क बोद्ध मत के प्रभाव में आ गया| उसने कश्मीर में चौथी बोद्ध संगति का आयोज़न किया, जिसके फलस्वरूप बोद्ध मत कि महायान शाखा का उदय हुआ| कनिष्क के प्रयासों और प्रोत्साहन से बोद्ध मत मध्य एशिया और चीन में फ़ैल गया, जहाँ से इसका विस्तार जापान और कोरिया आदि देशो में हुआ| इस प्रकार गौतम बुद्ध, जिन्हें भगवान विष्णु का नवा अवतार माना जाता हैं, उनके मत का प्रभाव पूरे एशिया में व्याप्त हो गया और भारत के जगद गुरु होने का उद् घोष विश्व की हवाओ में गूजने लगा|
कनिष्क के दरबार में अश्वघोष, वसुबंधु और नागार्जुन जैसे विद्वान थे| आयुर्विज्ञानी चरक और श्रुश्रत कनिष्क के दरबार में आश्रय पाते थे| कनिष्क के राज्यकाल में संस्कृत सहित्य का विशेष रूप से विकास हुआ| भारत में पहली बार बोद्ध साहित्य की रचना भी संस्कृत में हुई| गांधार एवं मथुरा मूर्तिकला का विकास कनिष्क महान के शासनकाल की ही देन हैं| 
     
मौर्य एवं मुग़ल साम्राज्य की तरह कुषाण/कसाना वंश ने लगभग दो शताब्दियों (५०-२५० इस्वी) तक उनके जितने ही बड़े साम्राज्य पर शान से शासन किया| कनिष्क का शासनकाल इसका चर्मोत्कर्ष था| कनिष्क भारतीय जनमानस के दिलो दिमाग में इस कदर बस गया की वह एक मिथक बन गया| तह्कीके - हिंद का लेखक अलबरूनी १००० इस्वी के लगभग भारत आया तो उसने देखा की भारत में यह मिथक प्रचलित था कि कनिष्क की ६० पीढियों ने काबुल पर राज किया हैं| कल्हण ने बारहवी शताब्दी में कश्मीर का इतिहास लिखा तो वह भी कनिष्क और उसके बेटे हुविष्क कि उपलब्धियों को बयां करता दिखलाई पड़ता हैं| कनिष्क के नाम की प्रतिष्ठा हजारो वर्ष तक कायम रही, यहाँ तक कि भारत के अनेक राजवंशो की वंशावली कुषाण काल तक ही जाती हैं| क्या ये महज़ एक इत्तेफाक हैं कि मेवाड़ के सिसोदिया और टिहरी के पंवार अपना पूर्वज किसी कनक को मानते हैं? शाकुम्भरी के चौहान अपना पूर्वज किसी वासुदेव को मानते हैं, जबकि कनिष्क के पौत्र का नाम भी वासुदेव था|
शक संवत का भारत में सबसे व्यापक प्रयोग अपने प्रिय सम्राट के प्रति प्रेम और आदर का सूचक हैं, और उसकी कीर्ति को अमर करने वाला हैं| प्राचीन भारत के महानतम ज्योतिषाचार्य वाराहमिहिर (५०० इस्वी) और इतिहासकार कल्हण (१२०० इस्वी) अपने कार्यों में शक संवत का प्रयोग करते थे| उत्तर भारत में कुषाणों और शको के अलावा गुप्त सम्राट भी मथुरा के इलाके में शक संवत का प्रयोग करते थे| दक्षिण के चालुक्य और राष्ट्रकूट और राजा भी अपने अभिलेखों और राजकार्यो में शक संवत का प्रयोग करते थे|

मध्य एशिया कि तरफ से आने वाले कबीलो को भारतीय सामान्य तौर पर शक कहते थे, क्योकि कुषाण भी मध्य एशिया से आये थे इसलिए उन्हें भी शक समझा गया और कनिष्क कुषाण/कसाना द्वारा चलाया गया संवत शक संवत कहलाया| इतिहासकार फुर्गुसन के अनुसार अपने कुषाण अधिपतियो के पतन के बाद भी उज्जैन के शको द्वारा कनिष्क के संवत के लंबे प्रयोग के कारण इसका नाम शक संवत पड़ा|
शक संवत की लोकप्रियता का एक कारण इसका उज्जैन के साथ जुड़ाव भी था, क्योकि यह नक्षत्र विज्ञानं और ज्योतिष का भारत में सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र था| मालवा और गुजरात के जैन जब दक्षिण के तरफ फैले तो वो शक संवत को अपने साथ ले गए, जहाँ यह आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं| दक्षिण भारत से यह दक्षिण पूर्वी एशिया के कम्बोडिया और जावा तक प्रचलित हो गया| जावा के राजदरबार में तो इसका प्रयोग १६३३ इस्वी तक होता था, जब वहा पहली बार इस्लामिक कैलेंडर को अपनाया गया| यहाँ तक कि फिलीपींस से प्राप्त प्राचीन ताम्रपत्रों में भी शक संवत का प्रयोग किया गया हैं|
                    
                      शक संवत एवं विक्रमी संवत
शक संवत और विक्रमी संवत में महीनो के नाम और क्रम एक ही हैं- चैत्र, बैसाख, ज्येष्ठ, आसाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, पौष, अघन्य, माघ, फाल्गुन| दोनों ही संवतो में दो पक्ष होते हैं- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष| दोनों संवतो में एक अंतर यह हैं कि जहाँ विक्रमी संवत में महीना पूर्णिमा के बाद कृष्ण पक्ष से शुरू होता हैं, वंही शक संवत में महीना अमावस्या के बाद शुक्ल पक्ष से शुरू होते हैं| उत्तर भारत में दोनों ही संवत चैत्र के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को आरम्भ होते हैं, जोकि शक संवत के चैत्र माह की पहली तारीख होती हैं, किन्तु यह विक्रमी संवत के चैत्र की १६ वी तारीख होती हैं, क्योकि विक्रमी संवत के चैत्र माह के कृष्ण पक्ष के पन्द्रह दिन बीत चुके होते हैं| गुजरात में तो विक्रमी संवत कार्तिक की अमावस्या के अगले दिन से शुरू होता हैं|

                                 सन्दर्भ
  1. U P  Arora , Ancient India: Nurturants of Composite culture,  Papers from The Aligarh Historians Society , Editor Irfan Habib, Indian History Congress, 66th sessions , 2006.
  2. A L Basham, The wonder that was India, Calcutta, 1991.
  3. Shri Martand Panchangam, Ruchika Publication, Khari Bawli, Delhi, 2012.
  4. Rama Shankar Tripathi, History of Ancient India, Delhi, 1987.
  5. D N Jha & K M Shrimali, Prachin Bharat ka  Itihas, Delhi University, 1991.
  6. Prameshwari lal Gupta, Prachin Bhartiya Mudrae,Varanasi, 1995.
  7. Lalit Bhusan, Bharat Ka Rastriya Sanvat- Saka Sanvat,Navbharat Times, 11 April 2005.
  8. Indian National Calendar- Wikipedia http://en.wikipedia.org/wiki/Indian_national_calendar
  9. The Hindu Calendar System -http://hinduism.about.com/od/history/a/calendar.htm,
  10. Kanishka; the Saka Era, art and literature-http://articles.hosuronline.com/articleD.asp?pID=958&PCat=8
  11. Hindu Calendar- Wikipedia –
  1. 22 March: This Date in History-

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