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भारत कोष की सहायता से |
- कनिष्क :(शासन: 127 ई. से 140-51 ई. लगभग)
यूची क़बीले से निकली यूची जाति ने भारत में कुषाण वंश की स्थापना की और भारत को कनिष्क जैसा महान शासक दिया। विम कडफ़ाइसिस के बाद कुषाण साम्राज्य का अधिपति कौन बना, इस सम्बन्ध में इतिहासकारों में बहुत मतभेद था लेकिन राबाटक शिलालेख [1] के मिलने के बाद कनिष्क का वंश वृक्ष स्पष्ट हो जाता है। वैसे तो सभी कुषाण राजाओं के तिथिक्रम का विषय विवादग्रस्त है, और अनेक इतिहासकार राजा कुजुल और विम तक को कनिष्क का पूर्ववर्ती न मानकर परवर्ती मानते थे, पर अब बहुसंख्यक इतिहासकारों का यही मत है, कि कनिष्क ने कुजुल और विम के बाद ही शासन किया, पहले नहीं। विम कडफ़ाइसिस के राज्य काल का अन्त लगभग 100 ई. के लगभग हुआ था, और कनिष्क 127 ई. के लगभग कुषाण राज्य का स्वामी बनने का अन्दाज़ा लगता है। इस बीच के कुषाण इतिहास को अज्ञात ही समझना चाहिए। कनिष्क का इतिहास जानने के लिए ऐतिहासिक सामग्री की कमी नहीं है। उसके बहुत से सिक्के उपलब्ध हैं, और ऐसे अनेक उत्कीर्ण लेख भी मिले हैं, जिनका कनिष्क के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है। इसके अतिरिक्त बौद्ध अनुश्रुति में भी कनिष्क को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। बौद्ध धर्म में उसका स्थान अशोक से कुछ ही कम है। जिस प्रकार अशोक के संरक्षण में बौद्ध धर्म की बहुत उन्नति हुई, वैसे ही कनिष्क के समय में भी हुई।
कनिष्क को कुषाण वंश का तीसरा शासक माना जाता था किन्तु राबाटक शिलालेख के बाद यह चौथा शासक साबित होता है। संदेह नहीं कि कनिष्ककुषाण वंश का महानतम शासक था। उसके ही कारण कुषाण वंश का भारत के सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसका राज्यारोहण काल संदिग्ध है। 100 ई. से 127 ई. तक इसे कहीं पर भी रखा जा सकता है, किन्तु सम्भावना यह भी मानी गई थी कि तथाकथित शक संवत, जो 78 ई. में आरम्भ हुआ माना जाता है, कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि हो सकती है। कनिष्क के राज्यारोहण के समय कुषाण साम्राज्य मेंअफ़ग़ानिस्तान, सिंध का भाग, बैक्ट्रिया एवं पार्थिया के प्रदेश सम्मिलित थे। कनिष्क ने भारत में अपना राज्य मगध तक विस्तृत कर दिया। वहाँ से वह प्रसिद्ध विद्वान अश्वघोष को अपनी राजधानी पुरुषपुर ले गया। तिब्बत और चीन के कुछ लेखकों ने लिखा है कि उसका साकेत और पाटलिपुत्र के राजाओं से युद्ध हुआ था। कश्मीर को अपने राज्य में मिलाकर उसने वहाँ एक नगर बसाया जिसे 'कनिष्कपुर' कहते हैं। शायद कनिष्क ने उज्जैन के क्षत्रप को हराया था और मालवा का प्रान्त प्राप्त किया था। कनिष्क का सबसे प्रसिद्ध युद्ध चीन के शासक के साथ हुआ था, जहाँ एक बार पराजित होकर वह दुबारा विजयी हुआ। कनिष्क ने मध्य एशिया में काशगर, यारकंद, ख़ोतान, आदि प्रदेशों पर भी अपना आधिपत्य स्थापित किया। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य के पश्चात पहली बार एक विशाल साम्राज्य की स्थापना हुई, जिसमें गंगा, सिंधु और आक्सस की घाटियाँ सम्मिलित थीं।
जो प्रदेश जीते
कुषाण वंश का प्रमुख सम्राट कनिष्क भारतीय इतिहास में अपनी विजय, धार्मिक प्रवृत्ति, साहित्य तथा कला का प्रेमी होने के नाते विशेष स्थान रखता है। कुमारलात की कल्पनामंड टीका के अनुसार इसने भारत विजय के पश्चात मध्य एशिया में ख़ोतान जीता और वहीं पर राज्य करने लगा। इसके लेखपेशावर, माणिक्याल (रावलपिंडी), सुयीविहार (बहावलपुर),जेदा (रावलपिंडी), मथुरा, कौशांबी तथा सारनाथ में मिले हैं, और इसके सिक्के सिंध से लेकरबंगाल तक पाए गए हैं । कल्हण ने भी अपनी 'राजतरंगिणी' में कनिष्क, झुष्क और हुष्क द्वारा कश्मीर पर राज्य तथा वहाँ अपने नाम पर नगर बसाने का उल्लेख किया है । इनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि सम्राट कनिष्क का राज्य कश्मीर से उत्तरी सिंध तथा पेशावर से सारनाथ के आगे तक फैला था। कुषाण राजा कनिष्क के निर्माण कार्यों का निरीक्षक अभियन्ता एक यवन अधिकारी अगेसिलोस था।
बौद्ध धर्म और कुषाण
किंवदंतियों के अनुसार कनिष्क पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर अश्वघोष नामक कवि तथा बौद्ध दार्शनिक को अपने साथ ले गया था और उसी के प्रभाव में आकर सम्राट की बौद्ध धर्म की ओर प्रवृत्ति हुई । इसके समय में कश्मीर में कुण्डलवन विहार अथवा जालंधर में चतुर्थ बौद्ध संगीति प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुमित्र की अध्यक्षता में हुई । हुएनसांग के मतानुसार सम्राट कनिष्क की संरक्षता तथा आदेशानुसार इस संगीति में 500 बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया और त्रिपिटक का पुन: संकलन संस्करण हुआ । इसके समय से बौद्ध ग्रंथों के लिए संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ और महायान बौद्ध संप्रदाय का भी प्रादुर्भाव हुआ । कुछ विद्वानों के मतानुसार गांधार कला का स्वर्णयुग भी इसी समय था, पर अन्य विद्वानों के अनुसार इस सम्राट के समय उपर्युक्त कला उतार पर थी । स्वयं बौद्ध होते हुए भी सम्राट के धार्मिक दृष्टिकोण में उदारता का पर्याप्त समावेश था और उसने अपनी मुद्राओं पर यूनानी, ईरानी, हिन्दू और बौद्ध देवी देवताओं की मूर्तियाँ अंकित करवाई, जिससे उसके धार्मिक विचारों का पता चलता है । 'एकंसद् विप्रा बहुधा वदंति' की वैदिक भावना को उसने क्रियात्मक स्वरूप दिया।
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